हस्तिनापुर से नई दिल्ली के बीच समय और सभ्यता की कई परतों को अपने में समेटे है हमारी दिल्ली। ध्यान से देखना शुरू करेंगे तो महाभारत से अभी तक की निशानिया दिख जायेगी और हर एक अपनी अलग कहानी के साथ, तभी तो अभी की दिल्ली कम से कम आठ अलग अलग शहरो का कालक्रम है हस्तिनापुर, महरौली, सीरी, तुग़लगाबाद, जहाँपनाहबाद, फिरोजाबाद, शाहजहाँनाबाद और सबसे आधुनिक नई दिल्ली, जो की अंग्रेज़ो की विरासत है और जिसे वर्तमान स्वरूप दिया गया 1911 के बाद, जब अविभाजित भारत की राजधानी को कोलकाता से दिल्ली लाया गया और काफी हद तक यह हमारी अभी की पहचान भी है।ऐसी ही एक अंग्रेजी धरोहर है दिल्ली वॉर सेमेट्री, जिसे तामीर किया गया आज़ादी के बाद 1951 में, जहा प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में भारतीय ब्रिटिश सेना के खेत हुए 1121 शहीद चिर निद्रा में सोए हुए है !
यह एक छोटी मगर भव्य स्मारक है जो धौला कुआँ और नारायणा के बीच आर्मी कैंटोनमेंट के बीच है, जहा कभी भी आप अतीव शांति महसूस कर सकते है । यहाँ द्वितीय विश्वयुद्ध के 1022 और प्रथम युद्ध के 99 खेत हुए सैनिकों की स्मारक है, जिसे बाद में किसी और जगह की कब्र से यहाँ लाया गया। ऐसी ही एक सेमेट्री पाकिस्तान के कराची शहर में भी है । अंग्रेज़ो की चंद कुछ खासियत मे से एक है ये युद्ध स्मारक, जो दर्शाता है उनके अपनी धरोहर को संरक्षित करने का जज्बा, युद्ध के 80 साल बीत जाने के बाद भी संसार में लगभग उन सभी कब्रो की हिफाज़त का जिम्मा उठाती रही है ब्रिटिश सरकार, चाहे वो किसी भी देश में हो, और इसके लिए बाकायदा एक कॉमनवेल्थ वॉर ग्रेव कॉमिशन है जो उन सारे स्मारकों के संरंक्षण और रख रखाव का कार्य करती है ! हलाकि की ब्रिटिश प्रयासो से भारत के सरकारी और गैर सरकारी महकमो में अपने वीरो की वीरता की थाती को याद करने का चलन अब जोर पकड़ने लगा है और साल में कम से कम दो बार यहाँ कार्यक्रम आयोजित किया जाता है जहाँ पुरानी पीढ़ी के रणबाकुरों को याद करने नई पीढ़ी भी भारी संख्या में आती है।
ये काफी गर्व का विषय है कि दोनों विश्व युद्ध में बृहद भारत के कम से कम चार मिलियन भारतीय प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शामिल रहे जिसमे सैनिकों ने सर्वोच्च बलिदान दिया और अंग्रज़ों को विजय दिलायी, तभी तो आधिकारिक रूप से ब्रिटिश सत्ता ने भी इस बात को स्वीकार किया है । कही ना कही कृतज्ञ रहे है ब्रिटिश जो आज भी उस 22 साल के ब्रिटिश-इंडियन आर्मी फ्लाइंग ऑफिसर एडबर्ड को याद करते है जो जर्मनो से लोहा लेते हुए शहीद हो गया था, ऐसे हज़ारो युवा जज्बे को चिर स्मृती दिया गया इस वॉर सेमेट्री में । पुरे भारत में 8 शहरो में लगभग 25866 शहीदों की समाधियों संरक्षित है, जिसमे पाकिस्तान का कराची की सेमेट्री भी शामिल है ! दिल्ली के अलावा भारत के अन्य शहरो में ऐसी सेमेट्री श्रृंखला है, भवानीपुर वॉर सेमेट्री, कोलकाता, कोहिमा वॉर सेमेट्री, मद्रास वॉर सेमेट्री, रांची वॉर सेमेट्री, किर्की वॉर सेमेट्री, पूना, इम्फाल वॉर सेमेट्री, गुवहाटी वॉर सेमेट्री जहा करीने से कतारबद्ध शिलापटो पर शहीदों की सारी आवयशक सूचनाएं अंकित है, जिसे आप कही भी खड़े हो के देखेंगे तो एक समायोजन दिखेगा। रख रखाव के लिए माली और पत्थरतराशो का पूरा स्थानीय अमला है जिसे समय समय पर तकनिकी ट्रेनिंग दी जाती रहती है ताकि संरंक्षण में कोई कोताही ना रह जाये !
यहाँ वृहद् भारत के क्रिशचन और मुसलमान वीरो की ही चिर स्मृतीया सुरक्षित है, जिसे क्रमशः क्रॉस और चबूतरे से पहचाना जा सकता है, परकिसी हिन्दू सैनिक की समाधी नहीं है, क्योंकि उनका अग्नि संस्कार कर दिया जाता था ! कुल 1122 समाधियों में एक समाधी एक महिला सैनिक की भी है, मौरीन की, जो Woman Auxillary Service की तरफ से अपनी शहादत दी थी, हलाकि उनके बारे में और कुछ जानकारी नहीं है पर शायद वो नीदरलैंड की नागरिक थी। मौरीन की तरह ही निवर्तमान ब्रिटिश शासक विक्टोरिया भी द्वितीय विश्व युद्ध में भाग ले चुकी है। जो भी हो यहाँ आने से कई अंजान लोगो से आपका अदृश्य रिश्ता जुड़ जाता है, नहीं तो मौरीन की, एडवर्ड की चर्चा भला यहाँ क्योकर होती।
दिल्ली वॉर सेमेट्री का बाहरी प्रारूप कुछ हट के है, जहा कोई चारदीवारी नहीं है बल्कि झाड़ियों को ही दीवाल का रूप दे दिया गया है, हालाकी अब हरेक स्मारक या इमारत को दीवाल से घेर देने की परंपरा जोर पकड़ रही है । एक भव्य यूरोपियन शैली में बने दरवाजा जो की चार चार की श्रंखला में बने आठ खंभे पे टिका है मुख्य पहचान है जिसके ठीक अंदर की तरफ एक बड़ा सा पत्थर का क्रॉस है उसके दोनों तरफ शिला्पट्टो की श्रृंखला है ! मुख्य दरवाजे के बाये तरफ मेरठ सेमेट्री के शहीदों के नाम का तांबे की पट्टी है, जिसे अब मेरठ में ही स्थानांतरित किया जाना है वही दाये तरफ एक बृहद किताब है जिसमे प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के आंग्ल-इंडिया सेना के शहीद हुए उन तमाम 25866 सैनिकों का विवरण है । ब्रिटिश राज की निशानी जरूर है ये पर हमें यहाँ जरूर घूमना चाहिए ताकि धरोहरों के संरंक्षण की महत्ता समझी जा सके और ये भी सीख लिया जा सके की इतिहास भूलने की नहीं, उसकी स्मृति के साथ, उससे सबक लेके आगे बढ़ने का रास्ता है !
डॉ. कुशाग्र राजेंद्र
यायावर या खानाबदोश तो नहीं पर घुमक्कड़ी प्रवृति के, सब कुछ घूम लेने के मौके की तलाश में रहने वाले युवा अध्येता और पेशे से पर्यावरण विज्ञानी! बिहार-नेपाल सीमा के पास गाँव भतनहीया में जन्मे, कालेज तक की शिक्षा स्थानीय जिला स्कूल और मुंशी सिंह महाविद्यालय, मोतिहारी, पूर्वी चंपारण से प्राप्त करने के बाद एम.फिल, पीएचडी तक की शिक्षा पर्यावरण विज्ञान विद्यालय, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी (JNU)), नई दिल्ली से प्राप्त, सम्प्रति एमिटी यूनिवर्सिटी हरियाणा में शिक्षण और अनुसन्धान में संलग्न!
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